• तृतीय भाव के नाम : सर्वार्थ चिन्तामणिः सहोदर (भ्राता), दुश्चिक्य, गला (कंठ)।। फल दीपिकाः दुश्चिक्य, उरज़ (वक्ष), दाहिना कर्ण, सेना, साहस, वीरता, शूरता एवं भ्राता, तृतीय भाव के पदनाम हैं। जातक पारिजातः दुश्चिक्य, विक्रम (शूरता), सहोदर (भ्राता), वीर्य (साहस), धैर्य (दृढ़ता) एवं कर्ण (कान)। जातक अलंकार : सहज (सह जन्म), भ्रातृ, दुश्चिक्य ।
  • तृतीय भाव चार भावों में से एक है जो लीन स्थान कहलाते हैं जिसका अर्थ छिपे या गुप्त भाव हैं। यह उत्तम भावों में से एक है जो जातक के लिए। मंगलकारी होगा। यह चार भावों में से एक है जो आपोक्लिम या केडेंट भावों के नाम से जाना जाता है। यह उपचय कहलाने वाले चार भावों में से भी एक है।
  • तृतीय भाव के महत्त्व : तृतीय भाव का भाव कारक मंगल है। पराशरः सेवक, भ्राता, बहिनें, संस्कारिक निर्देश, यात्रा, माता-पिता की मृत्यु । उत्तर कालामृतः साहस, भ्राता, युद्ध, कर्ण, पैर, रास्ते के किनारे, बुद्धि की असमंजसता, अनुकूलता, स्वर्ग या परम सुख, दुःख का कारण बनना, स्वप्न, सैनिक, वीरों की वीरता, सम्बन्धी, मित्र, परिभ्रमण, ग्रीवा, ताजा या शुद्ध भोजन करना, सम्पत्ति का विभाजन, आभूषण, उदारता, विद्या, क्रीड़ा, शारीरिक बल, लाभ, शारीरिक वृद्धि, उदार उत्पत्ति, अनुचर, तर्जनी व अंगुष्ठ के मध्य का भाग (पूर्वजों की आत्मा के लिए पवित्र), दासी, उत्तम वाहन द्वारा एक छोटी यात्रा, एक विशाल जिम्मेदारी, स्वयं का धार्मिक कर्त्तव्य ।
  • सर्वार्थ चिन्तामणिः पतोहू, अनुज, कल्याण, बुद्धि, लाभ, सेवक, सेविकाएँ, वीरतापूर्ण कर्म, एवं भ्राता से सम्बन्धित वस्तुएँ । होरा सारः किसी का स्वर, शक्ति, साहस, सहजात ।